Monday, August 13, 2018

नज़रियाः 'करुणानिधि ने ब्राह्मणों के प्रति पूर्वाग्रह रखकर कभी भेदभाव नहीं किया'

वरिष्ठ पत्रकार और द हिंदू के पब्लिशर एन. राम से बीबीसी संवाददाता विवेक आनंद ने करुणानिधि की राजनीति, शासन, सामाजिक पक्ष, मीडिया से संबंध, विपक्षी राजनेताओं के साथ संबंध, श्रीलंकाई तमिलों के लेकर उनके विचार समेत कई मुद्दों पर विस्तृत बातचीत की.

सामाजिक न्याय करुणानिधि का आदर्श था. वो 80 वर्षों से भी अधिक समय तक सामाजिक न्याय के समर्थन में सक्रिय थे. सीएन अन्नादुरई के निधन के बाद वे डीएमके के प्रमुख बने और अपनी मौत तक करीब 50 वर्षों तक इस पद पर बने रहे.
जयललिता को एक बार विधानसभा चुनाव भी हार का सामना भी करना पड़ा लेकिन करुणानिधि 13 बार विधानसभा के लिए मैदान में उतरे और एक बार भी नहीं हारे. चाहे सत्ता में हों या ना हों वो हमेशा सामाजिक न्याय के प्रति समर्पित रहे.
हालांकि उन्होंने ब्राह्मण विरोधी आंदोलन से अपनी पहचान बनाई लेकिन ब्राह्मणों के प्रति पूर्वाग्रह रखकर कभी भेदभाव नहीं किया. मैं उन्हें एक बुर्जुग दोस्त के तौर पर व्यक्तिगत रूप से जानता हूं. उन्होंने ब्राह्मणों का केवल वैचारिक विरोध किया लेकिन उन्होंने किसी भी सामाजिक वर्ग के प्रति पूर्वाग्रह नहीं किया.
वो नास्तिक और तर्कवादी थे. यह उन्होंने कभी जनता से छुपाया नहीं. लेकिन उन्होंने कभी किसी खास धर्म को निशाना नहीं बनाया, अल्पसंख्यकों को लगातार उनका समर्थन मिलता रहा.
समाज कल्याण योजनाओं को लागू करने में तमिलनाडु हमेशा ही देश के शीर्ष दो राज्यों में से एक रहा. इसके मूल कारक भी करुणानिधि ही थे. एमजी रामाचंद्रन और जयललिता के शासन काल में एआईएडीएमके भी इसका हिस्सा रही.
मतभेदों के बावजूद डीएमके और एआईएडीएमके कल्याणकारी योजनाओं को लागू करने में एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा करती थीं. इस मुद्दे पर दोनों ही पार्टियों में हमेशा ही एक होड़ रही.
करुणानिधि ने अपने शासनकाल के दौरान तमिलनाडु स्लम क्लीयरेंस बोर्ड बनाया, सार्वजनिक वितरण प्रणाली को मज़बूत किया और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों पर अपना ध्यान केंद्रित किया. सार्वजनिक जीवन में उन्हें कई आलोचनाओं का सामना करना पड़ा. लेकिन उनमें किसी भी परिस्थिति से अपनी स्थिति को सुधारने की क्षमता थी.
करुणानिधि तक हमेशा ही आसानी से पहुंचा जा सकता था. वो एमजीआर और जयललिता से इस मामले में अलग थे. अगर आप किसी निश्चित समय पर पार्टी दफ़्तर में जाते तो यह तय है कि वो वहां मिलेंगे. मैंने बिना मिले कई बार उनसे फ़ोन पर बातें की हैं.
कभी कभी वो भी मुझे सुबह सुबह फ़ोन करते. वो स्वभाव के बेहद सच्चे थे, जो हमें आज के कई नेताओं में देखने को नहीं मिलता.
शासन के मामले में, वो अपने निर्णयों के बेहद पक्के थे. नौकरशाह के लोग उनके साथ काम करने के लिए बहुत उत्सुक रहते थे. किसी मामले में हां या ना कहने को लेकर उनकी सोच एकदम साफ़ थी.
इसके बावजूद कि करुणानिधि और जयललिता के बीच एक प्रतिद्वंद्विता थी, एमजीआर उनका बराबर सम्मान करते थे. एक बार एमजीआर के एक सहयोगी ने बातचीत के दौरान बिना कलाइग्नर बोले करुणानिधि के नाम का ज़िक्र किया तो एमजीआर ने उसे डांटा और साथ ही कार से उतार दिया. एमजीआर के मौत की ख़बर सुन कर करुणानिधि भी वहां सबसे पहले पहुंचने वालों में से थे.
पिछले कुछ वर्षों को छोड़ दें तो मीडिया के लिए लिखना, फिल्म स्क्रिप्ट, कविताएं लिखना उनकी आदत में शुमार रहा है. किसी भी अन्य राजनेता के पास उनकी तरह लेखन क्षमता नहीं थी. उल्लेखनीय है कि उन्होंने स्कूल की पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी थी, इसके बावजूद उनमें उत्कृष्ट लेखन प्रतिभा थी.
वो पार्टी के मुखपत्र मुरासोली के एडिटर थे. ग़लतियां पसंद नहीं थीं. तमिल भाषा के प्रति उन्हें बेहद प्यार था. केंद्र की जबरन हिंदी को थोपने का उन्होंने विरोध किया लेकिन वो कभी भी हिंदी के ख़िलाफ़ नहीं थे. भाषा को लेकर वो कट्टर नहीं थे.
पत्रकारों के साथ उनके तालमेल अच्छे थे. जब भी हम सरकार की आलोचना करते तो वो हमें अपनी सफ़ाई देने के लिए बुलाते. करुणानिधि ने कभी आगे बढ़ने के लिए ग़लत चाल नहीं चले. वो कभी लिखने और पत्रकारिता से अलग नहीं हुए.
लोकतंत्र में उनका अगाढ़ विश्वास था. शासन में रहने के बावजूद आप उनकी आलोचना कर सकते थे. उन्होंने जयललिता की तरह मीडिया पर 200 मानहानि के मामले कभी दर्ज नहीं करवाए. वो बेहद सहिष्णु थे.में कांग्रेस के विभाजन के दौरान इंदिरा गांधी की सरकार बगैर डीएमके के समर्थन के बच नहीं सकती थी. राष्ट्रीय राजनीति में उनकी साझेदारी ने हमेशा ही अहम भूमिका निभाई.
जब आपातकाल घोषित किया गया तो डीएमके एकमात्र ऐसी सत्ताधारी पार्टी थी जिसने इसका विरोध किया. इसके बदले में सरकार को बर्ख़ास्त कर दिया गया. वो सत्ता बनाए रखने के लिए इंदिरा के साथ जा सकते थे लेकिन वो लोकतंत्र में विश्वास रखते थे इसलिए एक मज़बूत रुख अख्तियार किया. इस दौरान डीएमके के कई नेताओं को गिरफ़्तार किया गया. उनके बेटे स्टालिन को जेल में पीटा गया.
समय के साथ डीएमके केंद्र में एनडीए का हिस्सा बन गई. लेकिन उनकी सोच केंद्र की सरकार में शामिल होने की थी. यहां ये देखना ज़रूरी है कि राजीव गांधी जिस तरह से इंदिरा गांधी की हत्या के बाद अचानक राजनीति में आ गए थे, उस तरह से स्टालिन ने राजनीति में क़दम नहीं रखा.
हालांकि राजनीति में कुछ अभिनेताओं को प्रवेश करने की चर्चाएं हैं लेकिन मुझे लगता है कि द्रविड़ पार्टियों प्रभुत्व बना रहेगा. हाल ही में एक ओपिनियन पोल के मुताबिक यदि अभी चुनाव हुए तो डीएमके जीत जाएगी क्योंकि जयललिता के बाद एआईएडीएमके कमज़ोर हो गई है. एक संगठन के तौर पर डीएमके आज मज़बूत है.
लिबरेशन टाइगर्स ऑफ़ तमिल ईलम या लिट्टे (एलटीटीई) हमेशा ही करुणानिधि की बजाय एमजीआर सरकार के चाहने वाले थे. तमिल ईलम लिबरेशन ऑर्गनाइजेशन (टीईएलओ) के नेता सीरी सबराथिनम की हत्या के बाद करुणानिधि का एलटीटीई के प्रति सम्मान ख़त्म हो गया.
एक बार करुणानिधि ने मुझसे बातचीत के दौरान कहा कि राजीव गांधी की हत्या एक अक्षम्य ग़लती थी. यहां तक कि श्रीलंकाई गृहयुद्ध के अंतिम चरणों के दौरान भी करुणानिधि ने वो सब करने की कोशिश की जो वो कर सकते थे. इसके बावजूद उन्होंने एलटीटीई का सीधे समर्थन नहीं किया.
मैंने उनसे श्रीलंकाई मुद्दे पर कई बार बात की है. हालांकि उनका कहना था कि वो तमिल ईलम के अलग राष्ट्र का समर्थन करते हैं, उनका स्टैंड था कि तमिलों को अपने राजनीतिक अधिकार और श्रीलंकाई संवैधानिक ढांचे के भीतर अपने जीवन को परिभाषित करने की क्षमता प्राप्त करनी चाहिए.
वो चाहते थे कि ईलम एक अलग राष्ट्र तभी बने जब उपरोक्त चीज़ें ना हो सके. अलग ईलम राष्ट्र को लेकर उनका हठ उतना नहीं था जितना कि दूसरों का. वो एलटीटीई की ज़्यादतियों के समर्थन में नहीं थे.
एक बार राजीव गांधी की हत्या के बारे में उनसे बात करते हुए मैंने किसी की कही बात का ज़िक्र किया कि 'एक मूर्खतापूर्ण ग़लती अपराध से भी बदतर है.' पहला, एलटीटीई भारतीय शांति सेना के साथ भयंकर लड़ाई में लगी है. दूसरा, प्रभाकरन खुद राजीव गांधी को मारने की योजना बनाता है. तीसरा, महिंदा राजपक्षे का चुनाव है.

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