हला वार्का टावर अफ्रीकी देश इथियोपिया में लगाया गया था. जब वहां कोहरे का सीज़न आया, तो इस मशीन से ख़ूब पानी इकट्ठा किया गया.
लेकिन जब बारिश या कोहरा नहीं था, तब भी हवा में नमी से पानी इकट्ठा हो रहा था.
इस
टावर को स्थानीय लोगों ने बांस और दूसरी चीज़ों से मिलाकर बनाया. इसमें ताड़ की पत्तियां भी इस्तेमाल की गई थीं. अब हैती और टोगो में भी ये मशीन
लगाई जा रही है. विटोरी कहते हैं कि वार्का टावर में आस-पास मिलने वाली
चीज़ों से ही पानी को जमा किया जाता है.
रोलां वाल्ग्रीन कहते हैं कि
ऐसी बुनियादी तकनीक उन्हीं जगहों पर कारगर होगी, जहां पर हवा में नमी ख़ूब
होगी. लेकिन, दुनिया भर में पानी से महरूम 2.1 अरब लोगों तक साफ़ पानी
पहुंचाना है, तो वार्का टावर इसमें ज़्यादा मददगार नहीं होगा.
वहीं
विटोरी कहते हैं कि एक वार्का टावर से 50 लोगों को पानी मुहैया कराया जा
सकता है. इसे तैयार करने में क़रीब 3 हज़ार डॉलर का ख़र्च आता है. बड़ा
यानी 25 मीटर लंबा टावर बनाने का ख़र्च क़रीब 30 हज़ार डॉलर बैठेगा, जो 250
लोगों को पानी की सप्लाई कर सकता है. जब हवा में नमी नहीं होती, तो इस
टावर के नीचे स्थित टैंक में पानी नहीं जमा होता.
इसके मुक़ाबले केमिकल स्पंज वाले डेसिकेंट और रेफ्रिजरेटर की तरह काम
करने वाली मशीनों से लगातार पानी जमा होता रहता है. हां, इन्हें चलाने के
लिए बिजली की ज़रूरत पड़ेगी.
वैसे तकनीक की दुनिया लगातार बदलती रहती है. कौन जाने, आगे चलकर कोई नई
तकनीक ईजाद की जाए. ऐसी मशीन बनाने के लिए अंतरराष्ट्री एक्सप्राइज़
इनोवेशन मुक़ाबले ने 17.5 लाख डॉलर का इनाम भी रखा है.
लोगों के ज़हन में ये सवाल भी है कि कहीं हवा से पानी सोखने से धरती के वाटर साइकिल पर तो असर नहीं पड़ेगा?
कहीं बादल बनने की प्रक्रिया पर तो असर नहीं होगा?
प्रोफ़ेसर
कोडी फ्रीसेन इन सवालों को हंसी में उड़ा देते हैं. वो कहते हैं कि अगर
धरती पर हर इंसान के पास हवा से पानी निकालने वाली मशीन हो, तो भी हम
ट्रैफिक के धुएं में मौजूद पूरा पानी नहीं निकाल सकेंगे.
भले ही हवा
से पानी सोखने के ये नुस्खे अभी अजीब लग रहे हों, मगर जिस तरह से ज़मीन के
भीतर मौजूद पानी का स्तर घट रहा है, उस स्थितिमें हमें बहुत जल्द पीने के
पानी के नए स्रोत की ज़रूरत होगी. ऐसे में डब्ल्यू एफ ए जैसी तकनीक में
उम्मीद नज़र आती है.
हर चमकने वाली चीज़ सोना नहीं होती,
लेकिन वो क्या वजह रही होगी कि प्राचीन काल में सोने और चांदी को मुद्रा के
रूप में चुना गया होगा?
ये महंगे ज़रूर हैं लेकिन बहुत सारी चीज़ें
इनसे भी महंगी हैं. फिर इन्हें ही संपन्नता और उत्कृष्टता मापने का पैमाना
क्यों माना गया?
बीबीसी इन सवालों के जवाब तलाशते हुए यूनिवर्सिटी
कॉलेज लंदन के आंद्रिया सेला के पास पहुंचा. आंद्रिया इनऑर्गेनिक
केमेस्ट्री के प्रोफ़ेसर हैं.
उनके हाथ में एक पीरियॉडिक टेबल था. आंद्रिया सबसे अंत से शुरू करते हैं.किन एक परेशानी भी है कि ये नोबल गैस समूह के होते हैं. ये गैस गंधहीन
और रंगहीन होती हैं, जिनकी रासायनिक प्रतिक्रिया की क्षमता कम होती है.
यही कारण है कि इन्हें मुद्रा के रूप में इस्तेमाल किया जाना आसान नहीं होता. क्योंकि इन्हें लेकर घूमना एक चुनौती होगा.
चूंकि ये रंगहीन होते हैं, इसलिए इसे पहचानना भी मुश्किल होता और ग़लती से इनका कंटेनर खुल जाए तो आपकी कमाई हवा हो जाती. इमेज कॉपीरइटGetty Imagesइस श्रेणी में मरकरी और ब्रोमीन तो हैं पर वे लिक्विड स्टेट में हैं और
ज़हरीले होते हैं. दरअसल सभी मेटलॉइड्स या तो बहुत मुलायम होते हैं या फिर
ज़हरीले.
पीरियॉडिक टेबल गैस, लिक्विड और ज़हरीले रासायनिक तत्वों के बिना कुछ ऐसा दिखेगा.
ऊपर के टेबल में सभी नॉन-मेटल तत्व भी ग़ायब हैं, जो गैस और लिक्विड
तत्व के आसपास थे. ऐसा इसलिए है क्योंकि इन नॉन-मेटल को न तो फैलाया जा
सकता है और न ही सिक्के का रूप दिया जा सकता है.
ये दूसरे मेटल के मुक़ाबले मुलायम भी नहीं होते हैं, इसलिए ये मुद्रा बनने की दौड़ में पीछे रह गए.
सेला ने अब हमारा ध्यान पीरियोडिक टेबल की बाईं ओर खींचा. ये सभी रासायनिक तत्व ऑरेंज कलर के घेरे में थे.
ये
सभी मेटल हैं. इन्हें मुद्रा के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है पर
परेशानी यह है कि इनकी रासायनिक प्रतिक्रिया क्षमता बहुत ज़्यादा होती है.
लिथियम
जैसे मेटल इतने प्रतिक्रियाशील होते हैं कि जैसे ही ये हवा के संपर्क मे
आते हैं, आग लग जाती है. अन्य दूसरे खुरदरे और आसानी से नष्ट होने वाले
हैं.
इसलिए ये ऐसे नहीं हैं, जिसे आप अपनी जेबों में लेकर घूम सकें.
इसके आसपास के रासायनिक तत्व प्रतिक्रियाशील होने की वजह से इसे मुद्रा
बनाया जाना मुश्किल है. वहीं, एल्कलाइन यानी क्षारीय तत्व आसानी से कहीं भी
पाए जा सकते हैं.
अगर इसे मुद्रा बनाया जाए तो कोई भी इसे तैयार कर
सकता है. अब बात करें पीरियॉडिक टेबल के रेडियोएक्टिव तत्वों की तो इन्हें
रखने पर नुक़सान हो सकता है.
ऊपर की तस्वीर में बचे रासायनिक तत्वों की बात करें तो ये रखने के हिसाब
से सुरक्षित तो हैं लेकिन ये इतनी मात्रा में पाए जाते हैं कि इसका सिक्का
बनाना आसान हो जाएगा, जैसे कि लोहे के सिक्के.
मुद्रा के रूप में उस रासायनिक तत्व का इस्तेमाल किया जाना चाहिए जो आसानी से नहीं मिलते हों.
अब अंत में पांच तत्व बचते हैं जो बहुत मुश्किल से मिलते हैं. सोना(Au), चांदी( ), प्लैटिनम(Pt), रोडियम(Rh) और पलेडियम(Pd).
ये
सभी तत्व क़ीमती होते हैं. इन सभी में रोडियम और प्लेडियम को मुद्रा के
रूप में इस्तेमाल किया जा सकता था लेकिन इनकी खोज उन्नीसवीं शताब्दी में की
गई थी, जिसकी वजह से प्राचीन काल में इनका इस्तेमाल नहीं किया गया था.
तब
प्लैटिनम का इस्तेमाल किया जाता था पर लेकिन इसे गलाने में तापमान को 1768
डिग्री तक ले जाना होता है. इस वजह से मुद्रा की लड़ाई में सोने और चांदी
की जीत हुई.
चांदी का इस्तेमाल सिक्के के रूप में तो हुआ पर परेशानी यह थी कि ये हवा में मौजूद सल्फर से प्रतिक्रिया कर कुछ काली पड़ जाती है.
चांदी की तुलना में सोना आसानी से नहीं मिलता है और यह काला भी नहीं पड़ता.
सोना ऐसा तत्व है जो आर्द्र हवा में हरा नहीं होती है. सेला कहते हैं कि यही वजह है मुद्रा की दौड़ में सोना सबसे आगे और अव्वल रहा.
वो कहते हैं कि यही वजह है कि हज़ारों सालों के प्रयोग और कई सभ्यताओं ने सोने को मुद्रा के रूप में चुना.
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